वो साल 2018 था जब कई दशकों के बाद कांग्रेस को मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनावों में अच्छी ख़ासी जीत मिली थी.
कांग्रेस ने प्रदेश में सरकार बनाई और इस जीत का सेहरा ज्योतिरादित्य सिंधिया के सिर पर बंधा, इसलिए क्योंकि वो पूरा चुनाव ‘शिवराज बनाम महाराज’ ही था.
ग्वालियर राजघराने का मध्य प्रदेश के ग्वालियर और चंबल संभाग में दबदबा तो रहा ही है, मगर 2018 के विधानसभा के चुनावों में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस को जीत दिलाने के लिए पूरे प्रदेश में जमकर प्रचार किया था.
मगर प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं बन पाए और संगठन ने कमलनाथ के हाथों में प्रदेश की बागडोर को सौंप दिया था.
अगले ही साल, यानी 2019 में सिंधिया राजघराने का लगातार मज़बूत गढ़ रही गुना की लोक सभा की सीट से सिंधिया ने चुनाव लड़ा था.
मगर तब कांग्रेस में उनके करीबी रहे केपी यादव भारतीय जनता पार्टी में चले गए. उन्होंने गुना सीट पर ज्योतिरादित्य के खिलाफ चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की.
अटकलें लगाई जाने लगी थीं कि शायद कांग्रेस पार्टी उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना दे या फिर उन्हें राज्यसभा भेज देगी. मगर उनकी जगह दिग्विजय सिंह को तरजीह दी गयी.
2019 की हार से वो और उनके समर्थक भी अचम्भे में आ गए थे क्योंकि जब 2014 में नरेंद्र मोदी की पूरे देश में लहर चल रही थी और कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं को लोकसभा चुनावों में हार मिली थी, तब भी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गुना की सीट पर जीत दर्ज की थी.
पंकज चतुर्वेदी सिंधिया के साथ कांग्रेस पार्टी में हुआ करते थे. वो कहते हैं कि इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि ‘कांग्रेस के अन्दर उनके ख़िलाफ़ चल रहे षड्यंत्र की वजह से उन्हें हरवाया गया था.’
वो कहते हैं कि 2019 में मिली हार और ‘कांग्रेस द्वारा किये गए अपमान से क्षुब्ध सिंधिया’ ने अपनी पुरानी पार्टी से नाता तोड़ लिया और भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए.
उनके साथ उनके समर्थक 22 कांग्रेस के विधायकों ने पाला बदलकर भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया.
इसके बाद कमलनाथ की सरकार गिर गई और उपचुनाव के बाद उनके समर्थन वाले विधायक दोबारा बीजेपी के टिकट पर चुनकर आये.
उनमें से 19 को शिवराज सिंह चौहान के मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया. भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भेजा और उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह भी दी.