पटना में रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हाथ में बीजेपी का सिंबल (कमल) देखा गया.
आमतौर पर चुनाव प्रचार में किसी दल के सबसे बड़े नेता के हाथ में किसी अन्य दल का चुनाव चिह्न देखने को नहीं मिलता है.
रविवार को बिहार की राजधानी पटना में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार रोड शो किया. यह इलाक़ा पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद के लोकसभा क्षेत्र में आता है.प्रधानमंत्री के रोड शो को देखने के लिए बीजेपी के अलावा जेडीयू के समर्थक भी बड़ी संख्या में पटना की सड़कों पर मौजूद थे.
इस दौरान पटना की सड़कों पर सुरक्षा व्यवस्था काफ़ी कड़ी कर दी गई थी और कई सड़कों को वाहनों के लिए बंद कर दिया गया था.
इससे पटना में कई रेलवे स्टेशन और अन्य जगहों पर लोगों को काफ़ी परेशानी भी हुई.
पटना में नरेंद्र मोदी के साथ नीतीश कुमार की इस तस्वीर को सोशल मीडिया पर कई लोगों ने साझा किया है. रोड शो के दौरान नीतीश कुमार की बॉडी लैंग्वेज को लेकर भी लोग कई तरह की चर्चा कर रहे हैं.
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, “नीतीश कुमार एक हारे हुए, थके हुए नेता की मनःस्थिति में दिखते हैं. उन्हें बार-बार यह कहने की ज़रूरत पड़ती है कि अब बीजेपी का साथ छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे. यह पूरी तरह आत्मसमर्पण का भाव है. वो चाहते हैं कि अब बीजेपी के सहारे आगे की ज़िंदगी सुविधा में कट जाए.”
नीतीश कुमार पहली बार साल 1985 में बिहार विधानसभा का चुनाव जीतकर विधायक बने थे. नीतीश ने पहली बार साल 1989 में लोकसभा चुनाव जीता था और साल 1990 में वो पहली बार केंद्र सरकार में मंत्री भी बनाए गए थे.
नीतीश ने साल 2000 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, हालाँकि बहुमत ना होने से वह सरकार एक हफ़्ते भी नहीं चल पाई थी.
इस तरह से नीतीश का राजनीतिक सफ़र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से काफ़ी पुराना नज़र आता है. नीतीश ही मूलरूप से पिछले बीस साल से बिहार की सत्ता पर बैठे हैं और बिहार की सियासत में उनकी सेहत को लेकर भी कई बार चिंता जताई गई है.
पिछले महीने 7 अप्रैल को बिहार के नवादा में चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश कुमार ने पीएम मोदी की मौजूदगी में अपने भाषण में कई बार ग़लतियाँ की थीं. नीतीश ने यहाँ तक कह दिया था कि लोग वोट देकर प्रधानमंत्री मोदी को ‘चार हज़ार लोकसभा’ सीटें देंगे.
अपने भाषण के बाद नीतीश कुमार प्रधानमंत्री मोदी के आगे झुककर उनके पाँव छूते भी नज़र आए थे. बिहार के सियासी गलियारों में यह तस्वीर चर्चा का एक विषय बन गई थी, जिसे बिहार में विपक्ष ने नीतीश के सम्मान के साथ भी जोड़ा था
नवादा के बाद बिहार में नरेंद्र मोदी की कुछ सभाओं में नीतीश कुमार मौजूद नहीं थे. उसके बाद से नीतीश के बीजेपी के साथ समीकरण पर कई तरह के सवाल सवाल किए जा रहे थे. हालाँकि बाद में नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी मुंगेर लोकसभा सीट पर प्रचार के दौरान एक साथ मौजूद थे.
वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद मानते हैं, “नीतीश कुमार ने अपने हाथ में बीजेपी का चुनाव चिह्न उस वक़्त थामा है जब पिछले 20 साल की राजनीति में मोदी अपनी सबसे कमज़ोर स्थिति में हैं. जब मोदी ताक़तवर थे तब नीतीश उनसे झगड़ रहे थे. इसका मतलब है कि नीतीश कुमार अब बहुत कमज़ोर हो चुके हैं.”
सुरूर अहमद के मुताबिक़ नीतीश कुमार की मानसिक स्थिति ऐसी दिखती है कि उनसे जो चाहे करा लो. उन पर सेहत और उम्र का असर जेडीयू के ही नेता जॉर्ज फ़र्नांडिस की याद दिलाता है, जो किसी समय एनडीए का बड़ा चेहरा थे, लेकिन साल 2009 के लोकसभा चुनावों में ख़ुद पाँचवें नंबर पर रहे थे.
बीजेपी को नीतीश की ज़रूरत क्यों
माना जाता है कि नीतीश की लोकप्रियता में गिरावट के दावों के पीछे एक वजह उनका बार-बार पाला बदलना है.
जानकारों के मुताबिक़- नीतीश के साथ आने से एनडीए को भले ही बड़ा फ़ायदा न हो, लेकिन उनके विपक्ष में होने से एनडीए को बड़ा नुक़सान हो सकता था.
माना जाता है कि इसी साल जनवरी में विपक्ष का साथ छोड़कर एनडीए में शामिल होने के बाद ही नीतीश के राजनीतिक क़द को बड़ा नुक़सान हुआ है. अगर वो विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ में होते तो उनका क़द और उनकी राजनीतिक हैसियत ज़्यादा बड़ी होती.
लेकिन ऐसी स्थिति में भी बीजेपी को नीतीश कुमार की ज़रूरत क्यों पड़ती है?
पटना में एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक और राजनीतिक मामलों के जानकार डीएम दिवाकर इसके पीछे दो प्रमुख वजह मानते हैं.
उनके मुताबिक़, “इस बार मुस्लिम वोटर नीतीश के साथ नहीं दिखते हैं फिर भी बीजेपी को लगता है कि नीतीश जितने भी सेक्युलर वोटों का विभाजन करेंगे उतना ही बीजेपी को फ़ायदा होगा, क्योंकि यह वोट कभी भी बीजेपी का नहीं रहा है.”
“इसकी दूसरी वजह यह है कि बीजेपी के पास बिहार में कोई सर्वमान्य नेता नहीं है और पार्टी में कई नेता ख़ुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानते हैं. इसलिए नीतीश को आगे कर के बीजेपी अपनी पार्टी के भीतर की कलह को दबा देती है.”
माना जाता है कि नीतीश कुमार के हाथ में बीजेपी के चुनाव चिह्न को देखकर नीतीश के साथ के सेक्युलर वोटों पर असर पड़ सकता है और वो नीतीश से दूर जा सकते हैं