लोकसभा चुनाव के बीच प्रधानमंत्री की इकोनॉमिक एडवाइज़री काउंसिल ने भारत की ‘जनसंख्या में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी’ पर एक वर्किंग पेपर जारी किया है. इसकी मंशा पर कई सवाल पूछे जा रहे हैं.
इस वर्किंग पेपर का शीर्षक है ‘शेयर ऑफ़ रीलिजियस माइनॉरिटीज़: ए क्रॉस कंट्री एनालिसिज़ (1950-2015).’
एक्सपर्ट इस रिपोर्ट की आलोचना इसलिए कर रहे हैं क्योंकि ये भारत में बहुसंख्यकों (हिंदू) और अल्पसंख्यकों (मुसलमान) की आबादी की बढ़ोतरी और गिरावट की बात जिन पैमानों पर कर रही है, उनका इस्तेमाल नहीं किया जाता है.
वर्किंग पेपर इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि, “1950 से 2015 के बीच हिंदुओं की आबादी 7.82 प्रतिशत घटी है. 1950 में देश की कुल आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी 84.68 प्रतिशत थी और 2015 में ये हिस्सेदारी 78.06 हो गई थी. 1950 में भारत की कुल आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत 9.84 था और 2015 में ये 14.09 प्रतिशत हो गया. 1950 की तुलना में ये मुसलमानों की आबादी में 43.15 प्रतिशत बढ़ोतरी है.”
दरअसल, यह आबादी के बढ़ने का प्रतिशत नहीं बल्कि हिस्सेदारी में बदलाव का प्रतिशत है, लेकिन कई चैनलों ने इसे इसी भ्रामक तरीक़े से दिखाया जिसकी आलोचना पॉपुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया ने की है.
पॉपुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुटरेजा कहती हैं कि 2011 की जनगणना बताती है कि ‘बीते तीन दशकों में मुसलमानों की जन्म दर घटी है.’
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे पुरुषोत्तम एम कुलकर्णी जनसंख्या से जुड़े मामलों के एक्सपर्ट हैं. उन्हें भी इस निष्कर्ष पर एतराज़ है.
प्रोफ़ेसर कुलकर्णी ने बीबीसी हिंदी को बताया, “हम साधारण तौर पर प्रतिशत का प्रतिशत नहीं निकालते हैं.”
बेंगलुरु के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज़ में जेआरडी टाटा चेयर के विज़िटिंग प्रोफ़ेसर नरेंद्र पाणि ने बीबीसी को बताया, “अगर समुदाय की तादाद कम है तो प्रतिशत के हिसाब से देखने पर बदलाव बहुत बड़ा लगेगा. ऐसे ही किसी समुदाय की तादाद अधिक होने पर कोई भी बदलाव प्रतिशत के हिसाब से छोटा ही लगेगा. ये बुनियादी अंकगणित है.”