भारत की सर्वोच्च अदालत के आदेश के बाद बुधवार को न्यूज़क्लिक वेबसाइट के एडिटर-इन-चीफ़ प्रबीर पुरकायस्थ जेल से रिहा हो गए.
अदालत के मुताबिक़ पुरकायस्थ को उनकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में लिखित में बताया जाना चाहिए था जो नहीं किया गया. इसी आधार पर अदालत ने उन्हें रिहा करने का आदेश दिया था.
उन्हें ग़ैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम यानी यूएपीए एक्ट, 1967 के तहत गिरफ़्तार किया गया था.
यूएपीए एक्ट के तहत किसी भी व्यक्ति को बहुत मुश्किल से ज़मानत मिलती है. विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह महत्वपूर्ण फ़ैसला है और इसके बाद उम्मीद की जा रही है कि एजेंसियां गिरफ़्तारी करते समय क़ानूनी प्रावधानों का पालन करेंगी.
हालांकि केवल इस फ़ैसले का ये मतलब नहीं है कि इस आधार पर यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किए गए लोगों की रिहाई हो जाएगी.
पुरकायस्थ के ख़िलाफ़ मुक़दमा और उनकी गिरफ़्तारी
अगस्त 2023 में, न्यूयॉर्क टाइम्स ने अमेरिकी करोड़पति नेविल सिंघम से जुड़ा एक लेख प्रकाशित किया था. इस लेख में कहा गया था कि चीनी प्रोपोगैंडा फैलाने के लिए सिंघम ने न्यूज़क्लिक को भी फंडिंग दी थी.
इसके बाद, प्रबीर पुरकायस्थ और न्यूज़क्लिक के कई कर्मचारियों के ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता और यूएपीए की विभिन्न धाराओं के तहत ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों, आतंकवाद और आपराधिक साजिश सहित अन्य आरोपों के तहत एफ़आईआर दर्ज की गई.
पुरकायस्थ को बाद में तीन अक्टूबर को गिरफ़्तार कर लिया गया.
उनकी गिरफ़्तारी को चुनौती देने वाले मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस वक्त उन्हें गिरफ़्तार किया गया था उस वक्त उन्हें लिखित तौर पर ये नहीं बताया गया कि उन्हें किस वजह से गिरफ़्तार किया जा रहा है.
इसके अलावा, पांच अक्टूबर तक उनके ख़िलाफ़ की गई एफ़आईआर की कॉपी भी उन्हें नहीं दी गई.
इस बीच, दिल्ली पुलिस ने हिरासत में भेजने के लिए चार अक्टूबर को सुबह छह बजे उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया. जिस वक्त उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने ले जाया गया उस वक्त उनके वकील भी उपस्थित नहीं थे.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुरकायस्थ को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने के लिए पुलिस के पास शाम तक का समय था, लेकिन ऐसा करने में उसने जल्दबाज़ी की.
कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा है कि पूरा मामला गोपनीय तरीक़े से किया गया था और यह क़ानून की उचित प्रक्रिया को दरकिनार करने की ज़बरदस्त कोशिश थी.
अदालत ने कहा कि जिस व्यक्ति को यूएपीए या किसी अन्य अपराध के तहत गिरफ़्तार किया जाता है, उसे गिरफ़्तारी के आधार के बारे में लिखित रूप में जानकारी दी जानी चाहिए. ये उसका मौलिक अधिकार है और उसे ‘जल्द से जल्द’ मिलना चाहिए.
अदालत ने कहा कि “अगर इसका अनुपालन नहीं किया गया तो व्यक्ति की हिरासत को अवैध घोषित कर दिया जाएगा. चूंकि प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ़्तारी मामले में इसका पालन नहीं किया गया, इसलिए उन्हें रिहा करने का आदेश दिया गया है.”
भविष्य में इस तरह के मामलों के लिए अदालत ने कहा कि “किसी व्यक्ति की गिरफ़्तारी के लिए विस्तृत और विशिष्ट आधार होना चाहिए. फ़ैसले में इस आवश्यकता को मौलिक अधिकारों से भी जोड़ा गया है “
“इसमें कहा गया है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20, 21 और 22 के किसी भी उल्लंघन से “सख्ती से निपटा जाना चाहिए.”
ये आत्म-अभियोजन के ख़िलाफ़ अधिकार, स्वतंत्रता और गिरफ़्तारी या हिरासत से बचाव से जुड़े अनुच्छेद हैं.
फ़ैसले का असर
क़ानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि पुरकायस्थ के मामले में आया ये फ़ैसला महत्वपूर्ण है.
वरिष्ठ अधिवक्ता और आपराधिक क़ानून विशेषज्ञ सिद्धार्थ लूथरा कहते हैं, “लोगों को उनकी गिरफ़्तारी का आधार लिखित में दिए बिना गिरफ़्तार किया जाना एक सामान्य चलन है.”
उन्होंने कहा, “यह फ़ैसला महत्वपूर्ण है क्योंकि गिरफ़्तारी के आधार के बिना किसी को पता नहीं चलेगा कि उन पर क्या आरोप लगाए गए हैं. इससे लोग कोर्ट में अपना मामला लड़ने के लिए बेहतर स्थिति में होंगे.”
यदि गिरफ़्तारी अवैध साबित हुई तो कोई व्यक्ति जेल से बाहर भी निकल सकता है, जैसा कि प्रबीर पुरकायस्थ के मामले में हुआ.
हालांकि, इस फ़ैसले का मतलब यह नहीं है कि यूएपीए के तहत आरोपी बनाए जाने पर लोग जेल से बाहर आ जाएंगे. चूंकि, यह एक तकनीकी आधार निर्देशित करता है कि एजेंसी को गिरफ़्तारी का आधार लिखित रूप में प्रस्तुत करना होगा.
वरिष्ठ अधिवक्ता और आपराधिक क़ानून विशेषज्ञ रेबेका जॉन ने कहा, “उम्मीद की जा सकती है कि जांच एजेंसियां इस गैप को पूरा करेंगी और गिरफ़्तारी के औपचारिक आधार सौंपेगी.”
ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अन्य शर्तें, जैसे ज़मानत की शर्तें समान रहती हैं. यूएपीए के तहत, किसी व्यक्ति को ज़मानत पर तभी रिहा किया जा सकता है जब अदालत को लगे कि किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ सबूत प्रथम दृष्टया नहीं हैं.
इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अदालत ज़मानत के चरण में साक्ष्य की बारीक़ियों में नहीं जा सकती. इससे ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि यूएपीए के तहत ज़मानत मिलना बेहद मुश्किल हो गया है.
लेकिन रेबेका जॉन का मानना है, “यह फ़ैसला अधिनस्थ न्यायपालिका को एक संदेश भेजने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि पुलिस को प्रक्रिया का पालन करना होगा. जैसे कि वकील को सूचित करना, गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति को संबंधित दस्तावेज़ मुहैया कराना.”
भले ही यह फ़ैसला अपने आप में अभियुक्तों की मदद नहीं करता है लेकिन रेबेका का मानना है कि यह एक मुद्दे को संबोधित करता है और आने वाले वक्त में दूसरे फ़ैसलों के लिए आधार बन सकता है.
उन्होंने कहा, “आपको विभिन्न फ़ैसलों के बीच के बिंदुओं को आपस में जोड़ना होगा. मुझे उम्मीद है कि आपको ऐसे फ़ैसलों की झड़ी देखने को मिलेगी जहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता को तरजीह दी जाएगी.”
उदाहरण के लिए 2023 में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में जहां ज़मानत की शर्तें यूएपीए के समान हैं, एजेंसियों के पास गिरफ़्तार करने का ठोस कारण होना चाहिए क्योंकि ऐसे मामलों में ज़मानत मिलना मुश्किल होता है.
इसमें यह भी कहा गया कि आरोपी को गिरफ़्तारी का आधार लिखित में दिया जाना चाहिए. इस मामले के बाद भी ईडी ने गिरफ़्तारियां जारी रखी हैं, लेकिन वकीलों का कहना है कि अब ईडी गिरफ़्तारी का लिखित आधार लेकर आगे की कार्रवाई करती है.
हालांकि, यह निर्णय अन्य मामलों के लिए संभावनाएं खोलने वाला है. इस फ़ैसले का उपयोग करते हुए, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी तर्क दिया है कि दिल्ली आबकारी नीति में हुए कथित भ्रष्टाचार मामले में उनकी गिरफ़्तारी अवैध थी.
हालांकि केजरीवाल को लिखित में गिरफ़्तारी का आधार दिया गया था, लेकिन उन्होंने तर्क दिया है कि उनके ख़िलाफ़ पर्याप्त सबूत नहीं हैं.
रेबेका जॉन के अनुसार केजरीवाल का मामला यह क़ानून बनाने में महत्वपूर्ण होगा कि किसी व्यक्ति को मनी लॉन्ड्रिंग अपराध के लिए कब गिरफ़्तार किया जा सकता है.
इसी तरह, प्रबीर पुरकायस्थ मामले का इस्तेमाल करते हुए अदालत यह सुनिश्चित करने के लिए आगे फ़ैसलों की व्याख्या कर सकती है कि किसी व्यक्ति को सिर्फ़ इसलिए गिरफ़्तार नहीं किया जाए क्योंकि वे यूएपीए जैसे क़ानूनों के तहत अभियुक्त हैं.
हालांकि, ऐसे मामलों में एक बड़ा मुद्दा कोर्ट के फ़ैसले के बाद उसके अनुपालन का है. ट्रायल कोर्ट अक्सर ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित आदेश का पालन नहीं करते हैं.
केजरीवाल की अंतरिम ज़मानत पर टिप्पणी करते हुए, वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने अख़बार द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा कि ट्रायल कोर्ट आम तौर पर उचित सुनवाई के बिना ज़मानत आवेदनों को खारिज कर देते हैं.
वो कहती हैं, “अभियुक्त को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने के लिए मजबूर किया जाता है.”